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"शेयर बाजार का चार्ट जीवन पर चरितार्थ"

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 जिस तरह शेयर बाजार में चार्ट चलता है उसी तरह हमारे जीवन का भी एक चार्ट चलता है। शेयर बाजार में अलग-अलग प्रकार के सेक्टर पाए जाते हैं, जैसे - IT Sector, Auto Sector, Banking Sector, FMCG Sector आदि। इन सभी सेक्टर में से कुछ प्रमुख कंपनियों को चुनकर एक इंडेक्स बनाया जाता है। जिस तरह Nifty50 index और sensex index हैं। यह इंडेक्स दर्शाता है कि देश की कंपनियां किस तरह प्रदर्शन कर रही है। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी व्यवहारिक सेक्टर, चारित्रिक सेक्टर, शिक्षा का सेक्टर और बिजनेस का सेक्टर। इन सभी सेक्टर से हमारे कार्य करने के कुछ तरीकों से एक इंडेक्स बन जाता है। इसी तरह हमारे इंडेक्स का चार्ट हमारे जीवन को दर्शाता है। इसे यह ज्ञात होता है कि हम हमारे जीवन में सामाजिक रूप से प्रॉफिट में है या लॉस में हैं। अगर सही तरीके से हम हमारे इंडेक्स के चार्ट का विश्लेषण करें तो हमें पता चल जाता है कि हम लॉस में है या प्रॉफिट में है। अगर हम लॉस में हैं, हमारी वैल्यू गिरती जा रही है तो हमारे मैनेजमेंट में थोड़ा सुधार करना चाहिए। हमारे जीवन में MD यानी अवचेतन मन और CEO यानी चेतन मन को सही निर्देश की जरूर

आनंद

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  'आनंद'  कुसुम खिला  जो  आलय  की फुलवारी में, मैं छोड़ वह प्रमोद, चला जादुई फुलवारी में। मैं कितना  मूर्ख  हूं अपना  सुधा  छोड़, पराया     विष      पीने       चला। मैं मनोरथ,  कनक  की  करता  रहा, मेरे पास पड़ी रूपा का आनंद खो गया। मैं कल  की  चिंता  करता  रहा, आज  का  आनंद  खो  गया। जब  मैंने  देखा  आलय  की  फुलवारी, तब  मैंने  आज  का  आनंद  पाया। मैं कुसुम  का  पल्लव  देखते  रह गया, आज  का  आनंद 'मैं' ले  गया। नारायण सुथार ✍️

आपकी जीत

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पेड़ के पुराने पत्ते झड़ जाने के बाद, पेड़ के  नए  पत्ते  आना  निश्चित है। वसंत     ऋतु     जाने     के     बाद, ग्रीष्म    ऋतु    आना   निश्चित   है। फसल  की  कटाई करने के बाद, फिर   फसल   बोना  निश्चित  है। बबूल   का   पेड़   बोने  के  बाद, आम का फल लगना अनिश्चित है। आपने   दूसरों   की    निंदा  की   है  तो, आप  की  भी निंदा होगी  यह निश्चित है। आपने   दूसरों  की  सराहना  की  है  तो, आप की भी सराहना होगी यह निश्चित है। एक    बार    हार    जाने   के    बाद, दूसरी  बार  प्रयास  करना निश्चित है। आपने    मेहनत   सच्ची   की  है  तो, तीसरी बार आपकी जीत सुनिश्चित है। ( नारायण सुथार✍️ )

बबूल का पेड़

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            बबूल का पेड़ पेड़ के तने से मधुर आवाज आ रही, ऊपर  से   कोयल   गीत  सुना  रही। कुछ     पत्ते     नीचे   गिर   रहे   थे, वह      कोयल     गिरा    रही    थी। बबूल  के  पेड़  का टेढ़ा मेढ़ा  तना, वाह!     वाह!     क्या     सुंदर   है। बबूल के पेड़ के नीचे गिरे हुए फूल, वाह!    वाह!    क्या    नजारा   है। कुछ   पक्षी   उड़  कर   चले  जाते, कुछ फिर आकर पेड़ पर बैठ जाते। पेड़  की  छोटी  डाली पर वह पंछी, झूल-झूल    कर    उड़    जाते   है। मेरे   भोजन    में   फूल  गिरा  कर, वह  पंछी  उड़  कर  चले  जाते  हैं। मैं  उन   फूलों  के  बीच  बैठा-बैठा, बबूल के पेड़ का आनंद ले रहा था। (नारायण सुथार✍️)

सत्य का सुमन

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जाओ मनु तुम सत्य का सुमन तोड़ लाओ, निनाद   तुम्हारा   गूंज  उठेगा  इस धरा में। यह  सत्य   का बाट बड़ा करुणामय का है, जो  इस  बाट  पर  चलता  वही हरिश्चंद्र है। सत्य  की   तर्पण  उसी  की  फैलती है धरा में, प्राण   तजि  कर   सत्य का सुमन  तोड़ लाये। रजनीचर   तोड़ ले   आएगा   सत्य का सुमन, जाओ मनु सत्य का सुमन तुम तोड़ ले आओ। सत्य का सुमन   राजा हरीश चंद्र ने तोड़ा, राज्य छोड़ दिया लेकिन वचन नहीं छोड़ा। समृद्धि    को    छोड़कर   राजा   हरिश्चंद्र, वह   सत्य  का  सुमन   तोड़ने  चला  था। बहुत  महात्मा जन  कहकर  चले गए, हे  मनु तूने  सत्य का सुमन नहीं तोड़ा। मनु    तूने   सत्य  को   नहीं  पहचाना, लगता   है   तेरा   विवेक   मर गया है। हे विद्वान कैसे तोड़ूं मैं सत्य का सुमन? कुछ   भोंदू   मुझे   तोड़ने  नहीं देते है। भोंदू  कालकूट में  मुझे सुधा दिखाकर, अपनी   और  बुला  लेते  है यह  भोंदू। वह तो हर किसी को विष पिलाया करते हैं, तुम  क्यों   विष पीने  जाते हो उनके साथ। एक बार तुम सत्य का सुमन तोड़ ले आओ, फिर  कोई  नहीं  पिलायेगा तुम्हें कालकूट। त्रिलोचन को भी प्यारा है सत्य का सुमन, क्या कोई त्र

भूखा

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याचना     कठिन    है, जीना  हमारा  हक  है। हाय!  क्या  जीवन  है, जल में मीन प्यासी है। कौन  खाता  तेरी रोटी? कौन तुझे दुःख देता है? क्या   कहूं  मालिक  मैं, नेता खा जाते मेरी रोटी। हाय! क्या वह भी मानुष है, मूषक     से     कम   नहीं। ले      जाते     तेरी    रोटी, वह   स्वान  से  कम  नहीं। वह तो अपना उधर भरते, अपने   चमचों  के  साथ। बिना वोटर कार्ड वालों से, क्या    इनको    काम   है। तुझे  भूख  मिटानी  है तो, वोटर  कार्ड  बनाना होगा। चुनाव  के   दिनों  में  तुझे, नेता की जय बोलनी होगी। क्या मालिक वह भगवान है? क्या   सृष्टि   का   दाता   है? वह   भगवान   तो   नहीं  है, अपने को समझता जरूर है। (नारायण सुथार✍️)

सरपंच साहब

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चुनाव का समय था। हमारे गांव के लालू लाल जी भी सरपंच के चुनाव में खड़े हो रहे थे। गरीबों को दारू बांट रहे थे, अपने पसीने की कमाई को बांट रहे थे। मैंने पूछा लालू लाल जी आप चुनाव से पहले इतना खर्चा क्यों कर रहे हैं? लालू लाल जी ने कहा अभी खर्चा कर देने से बाद में नहीं करना पड़ेगा। जब अगले दिन चुनाव था, तब लालू लाल जी और बाकी के खड़े हुए सरपंच सभी जनता के लिए चाय की व्यवस्था कर रखी थी, जिस तरह बकरे को बलि के लिए तैयार किया जाता है, उसी तरह जनता को तैयार किया जा रहा था। अगले दिन शायद लालू लाल जी की मेहनत रंग लाई, अंत में लालू लाल जी सरपंच बन ही गए। लालू लाल जी चुनाव से पहले जबान के पक्के थे, लेकिन चुनाव के बाद नहीं है। चुनाव से पहले लालू लाल जी जनता को हाथ जोड़ रहे थे, अब जनता लालू लाल जी को हाथ जोड़ रही है। चुनाव से पहले खुद गधा बने थे, अब जनता को बना रहे हैं। सरपंच साहब काम अच्छा करवाते हैं, हमारे गांव का नहीं उनके घर का। आज उनका घर तीन मंजिल का है, पहले केवल उनके घर में एक कमरा था। यह सब चुनाव का खेल है। मैं तो कहता हूं देश का प्रधानमंत्री कितना ही ईमानदार क्यों ना हो, जब तक सरपंच ईमानदा

मेरा पथ

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मैं  धरा  के  उसी  पथ  पर  चलना  चाहता, जिस   पथ    पर   चलकर   गए   दिनकर। मैं  आद्य़ोपांत   दिनकर  रहना  चाहता  हूं, मैं शब्दों से विपन्न की पीड़ा गाना चाहता हूं। कातर के कातिल को सजा दिलाना चाहता, मानो  या नहीं मानो मैं देश का हित चाहता। कुचक्र के  विष  को मैं विष पिलाना चाहता, मैं  क्षुधार्त  को  मैं  सुधा  पिलाना  चाहता हूं। मैं तम  से  तड़ाक त्राण तदा चाहता हूं, जब तमा में दीन की तकदीर जाग उठे। तमचुर से दीन का सर्वथा त्राण मांगता, तमचुर से क्रूर का सर्वथा नाश मांगता। कलि में दीन कांतार का अधखिला फूल है, मैं दीन को पूर्ण खिला फूल देखना चाहता। मैं  क्रूर  का  आरति  तम देखना चाहता हूं, मैं  इस  भ्रष्टाचार  का नाश देखना चाहता। कविता की प्रांजल प्रवाह में बहना चाहता, कविता का दीप बनकर जलना चाहता हूं। निर्झर सलिल, सलिला में जाना चाहता है, मैं   कवि   कविता   में  जाना  चाहता  हूं। मैं नारायण अब  तम से त्राण चाहता हूं, मैं इस देश को भ्रष्टाचार मुक्त चाहता हूं। मैं  धरा  के  उसी  पथ  पर  चलना  चाहता, जिस   पथ    पर   चलकर   गए   दिनकर। मैं  आद्य़ोपांत   दिनकर  रहना  चाहता  हूं, मैं शब्दो

माली का बाग

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इस कविता में माली भगवान है। बाग यह संसार है।      'माली का बाग' एक  मनु   निराश  होकर, एक   पथ  पर  बैठा  था। एक पंडित उसी  पथ पर, दौड़ा    चला   आ  गया। पंडित उस मनु को समझाने लगा, अपने  प्रवचन उसे  सुनाने  लगा। वह पंडित उस मनु की शक्ति को, अपने  पांडित्य  से  जगाने लगा। कर्ण   जैसा  दानी  बन  तू, कबीर  जैसा ज्ञानी  बन तू, प्रहलाद जैसा भक्त बन तू, हे  मनु   कुछ  तो  बन  तू। क्यों  मन  को   निराश  कर  बैठा, क्यों माली का बाग गंदा कर बैठा। उस   माली   ने   तुझे    भेजा   है, कुछ सोच समझ कर  भेजा होगा। वह    माली   बड़ा   दयालु   है, मेहनत  का   फल तुरंत देता है। विलंब   हो  जाता  फल  देने में, तो कुछ बड़ा ही फल दे देता है। इस बाग में अनेक  लोग  आते हैं, लेकिन फल वही तोड़ ले जाते हैं, जो  अपना  अभिमान  तजि कर, मेहनत   का  बीज  बो  जाते  हैं। यह   सुनते   ही   उठ  चला  मनु, नई उमंग के साथ अपने पथ पर। उपवन में मेहनत करने लगा मनु, पसीने  का  बीज  बोने लगा वह। ( नारायण सुथार ✍️ )

दोहे

धर्म  को ही  कर्म  कहे, कर्म को धर्म कहे। कर्म पत तजि धर्म करें, धर्म   वृथा   हुई।। धेनु पूज कर धर्म करें, तिलक कर रखे डोर। धेनु  प्यासी   रह  गई,  धर्म    कोरा    होई।। धर्म ही धर्म सब कहे, धर्म  करे  न  कोई। धर्म किया हरिश्चंद्र ने, नाम जगत में पाई।। धर्म  धर्म   में  भेद  है, धर्म  धर्म  में भाव। मानव को धर्म एक है, कर सेवा निस्वार्थ।।

सत्य की ओर

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हे  मां  वीणा  धारिणी, हे  मां   पुष्प  धारिणी, हे मां सामवेद धारिणी, काव्य ज्ञान प्रदान करो। हे मां  स्वरों  की  देवी, हे  मां  ज्ञान  की  देवी, कर जोड़ विनती करूं, काव्य ज्ञान प्रदान करो।।           *****          'सत्य की ओर '              (भाग - १  ) सत्य की ओर बढ़  चलो तुम, हिंसा से मुख मोड़ चलो तुम। अभिमान   तज  चलो   तुम। लक्ष्य की ओर बढ़ चलो तुम। अब  हरि का  नेत्र खुलेगा, गगन में  बिजली चमकेगी, हाहाकार होगा चारों तरफ, क्रूर का विनाश होगा अब। हरि  में  बल  है  अति  प्रचंड, नष्ट  कर  सकते  दुनिया  को। समझ सको तो अभी समझो, नहीं  तो   प्रलय  होगा  फिर।। हो   रही   थी   सभा   इंद्र  की, पृथ्वी लोक पर समस्याओं की। पृथ्वी लोक से ब्रह्म ऋषि आए। इंद्र ने ‌सभा  को  प्रारंभ ‌किया। तब    बोल     उठे     वशिष्ठ, विश्वामित्र को बुलाना चाहिए। तब     इंद्रदेव ‌‌‌    बोल    उठे, विश्वामित्र  ब्रह्म ऋषि नहीं है। गुरुवशिष्ठ     ने     उत्तर      दिया, विलंब नहीं है, ब्रह्म ऋषि बनने में। उनके बिना  निर्णय उचित नहीं हे। निमंत्रण भेजा इंद्र ने विश्वामित्र को। नारद बुला ले आए विश्वामित्र को,

भ्रष्टाचार (वीर रस)

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समर की  करो तैयारी  तुम, तड़ित की तरह  जाग उठो। जिसमें अति प्रचण्ड बल है, वही भारत देश का  भूप है। मन से  दंभ  को  दूर  करके, खड्ग के धार  लगा लो तुम। भ्रष्टाचार  का  विनाश करके, उसके रुधिर से नहा लो तुम। शुंडाल जैसी भुजा बनाकर, पाषाण मैं भी पथ बना लो। तुम अपना पसीना बहाकर, भ्रष्टाचार को विष पिला दो। भुजंग  का  विष  तन मैं भर, भूतनाथ को  प्रणाम कर लो। मृगेन्द्र का रूप  बनाकर तुम, भ्रष्टाचार का शिकार कर लो। एक भुजा मैं  महीधर  उठा, दूसरी  में  चंद्रहास  उठाओ। भ्रष्टाचार का  विनाश करके, उसे महीधर के नीचे दबा दो। समर की  करो  तैयारी  तुम, तड़ित  की तरह  जाग उठो। जिसमें अति  प्रचण्ड बल है, वही भारत  देश  का भूप है।  ( नारायण सुथार  )

'भोर का पंछी'

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   "भोर का पंछी" नया जोश  नई उमंग, के  साथ  चला  पंछी, नीले  गगन की  ओर, लक्ष्य को प्राप्त करने। उड़ान   भरने   लगा, पसीना   आने  लगा, फिर भी  रुका  नहीं, आगे    बढ़ता    रहा, लक्ष्य को प्राप्त करने। चारागाह   पर   पहुंचा, दो-तिनका मुंह में लिए, फिर     लौट     आया, फिर    वापस     गया, फिर दो-तिनका लाया, फिर  उन  तिनको  से, सुंदर  सा  घर बनाया। फिर  सूर्यास्त  हो  गया, रात  को  चैन  से सोया, फिर सूर्य उदय हो गया। फिर नया जोश नई उमंग, के    साथ    चला   पंछी, नीले    गगन   की   और, लक्ष्य   को  प्राप्त  करने।  ( नारायण सुथार  )

लघु नाटक

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 "खुदा की लाठी में आवाज नहीं होती" [ सेठ मोहनलाल और उनका नौकर मगनलाल आज एक कमरे में सो रहे थे। चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ। बरसात का मौसम। बिजली चमक रही। बादल गरज रहे। तेज हवा चल रही। खिड़की खुली हुई। एक मेज से कुछ कागज इधर-उधर उड रहे। कैलेंडर के उड़ने की आवाज आ रही हे। बाहर से कुछ कुत्ते के भौकने की आवाज आई तब सेठ मोहनलाल की आंखें खुलती है। और कहता है।] सेठ मोहनलाल ( डरता हुआ ) - मगनलाल मगनलाल उठो। मगनलाल ( जल्दी-जल्दी तेज आवाज में ) - क्या हुआ सेठ जी। सेठ मोहनलाल - जरा बाहर जाकर देखो कौन है। मगनलाल - हां सेठ जी। [ मगनलाल बाहर जाता है। और देखता है। सामने वाले मकान से कोई आदमी चोरी करके निकल कर भाग रहा था। फिर मगनलाल अंदर जाता है। और कहता है। ] मगनलाल ( डरा हुआ ) - सेठ जी सामने वाले मकान से कोई आदमी चोरी करके भाग रहा है। सेठ मोहनलाल - जाओ तुम उस चोर को पकड़ो। मगनलाल - हां सेेेेठ जी जाता हूं। [  मगनलाल जाता है। कुछ दूरी तक उस चोर का पीछा करता हे। और चोर को पकड़ लेता है। देखता है तो वह चोर सेठ का पुत्र ही है। यह देखकर मगनलाल चोक जाता है। तब तक पीछे से कुछ चोर आते हैं।

कविता

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ओज  वाणी  गाओ   तुम, वह ज्वाला के  समान हो। शत्रु  से  जो  हार  नहीं   माने, वही  तो   महाराणा प्रताप  है। जो शत्रु को नतमस्तक कर दे, वही   तो    राजा   पोरस   है। सत्य मार्ग  जो  बताता हे, वही   तो   गुरु वशिष्ठ  है। सत्य मार्ग पर जो चलता, वही   तो   राजाराम   हे। अज्ञानी को ज्ञान सिखा दे, वही  तो  दास  कबीरा  हे। प्रतिमाओ मैं प्रभु दिखा दे, वही   तो   तुलसीदास  हे। जो आचरण  इनका  कर ले, वही तो स्वामी विवेकानंद हे।।  ( नारायण सुथार  )

'पानी गिर रहा'

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 "पानी गिर रहा" पानी  गिर  रहा  है, मधुर स्वर सुना रहा, पूरी रात सुना  रहा, बिजली चमक रही, बादल ढोल बजा रहा, हवा वीणा बजा रही, बून्दे ताल मिला रही, मीठा स्वर सुना रही, पानी  गिर  रहा  है, मधुर स्वर सुना रहा। पानी कुछ कह रहा, तुम ज्ञान से  सुनो, अपनी ताल में वह, पूरी कथा सुना रहा। किसानों के नयन में, नयन नीर नहीं देख पाता, नयन नीर देख  कर, दौड़ा चला आता हे, नयन नीर रोकने के लिए, मधुर स्वर सुनाता हुआ। पानी कुछ कह रहा, तुम  ज्ञान  से  सुनो, अपनी ताल में वह, पूरी कथा सुना रहा।। ( नारायण सुथार )

कविता

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   "कोकिला एक छन्द सुना" (विजात छन्द में रचित रचना) कोकिला  एक  छन्द सुना, जो  छन्द  तुम  सुनाती हो, उस छन्द को मनुज सुनता, कोकिला  एक  छन्द सुना। जो  भूखा  द्वार  पर  खड़ा, उसको   अन्न   नहीं   देता, सुनार  को   मधु   पिलाता, कोकिला  एक  छन्द सुना। भिक्षुक जीवन बड़ा मरियल, उसके   पास   अन्न    होता, वह   मांगने    नहीं    आता, कोकिला  एक  छन्द  सुना। यह मनुज  कितना क्रूर है, गरीबों   से    छीनता    है, अमीरों    को   भेट    देता, कोकिला  एक  छन्द सुना। कपड़ों   से जन  अमीर है, आज   पहचान है   कपड़े, गुण   कोई   नहीं   देखता, कोकिला  एक  छन्द सुना।  ( नारायण सुथार )

व्यंग्य

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           'व्यंग्य' एक डाकू ने  कत्ल किया, किस्मत अच्छी थी उसकी, हजारों   रूपयाँ  पास  था, सखी    बच    गया   वह। डाकू     अंधेरी     रात    में, भागते  भागते   जा  रहा था, आगे   ट्रैफिक   नजर आया, जेब पर उसने हाथ फहराया, हजार    रुपयाँ     पास   था, सखी      बच    गया     वह। तुम   हजारों   गुनाह   करो, हजारों   रूपयाँ  पास  रखो, यह रुपयाँ दिखा देना उनको, रिहा    कर     देंगे    तुमको। जेब   खाली   हुई   तो, लगा     दिया   ट्रैफिक, जेब  भर     गई     तो, हटा    दिया   ट्रैफिक।  ( नारायण सुथार  )

लहरें

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          लहरें बड़ी उमंग में चलती है, बड़े जोश में  चलती है, किनारे  से  टकराती है, फिर   भी   चलती   है। किनारा  ना  होता  तो, क्या  होता  लहरों  का? वह   लहरें  मर   जाती, उनकी उमंग मर जाती। किनारा प्रेरित करता है, किनारा आगे बढ़ाता है, किनारा    ही  तो   हमें, सफल     बनाता     है। कबीर ने बनाया किनारा, अपने     रामानंद     को, वह  कबीर  तो  धरा पर, सदा   अमर   हो    गए। कहे   कविराय    तुमको, एक किनारा तुम बनाओ, फिर   उस    किनारे   से, तुम   टकरा   के   देखो।  ( नारायण सुथार  )

शत्रुता

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                             'शत्रुता' किसी से शत्रुता मानव लेना नहीं चाहा कर भी ले लेता है। मानव किसी से अपना प्रेम नहीं बिगाड़ना चाहता, परंतु कोई स्वार्थ आने पर मानव अपने प्रेम को बिगाड़ देता और उनसे शत्रुता ले लेता है। इसी कारण शत्रुता मानव का एक स्वाभाविक अंग बन गया है। किसी से शत्रुता लेने का कोई कारण जरुर होता है और वह अपने निज स्वार्थ के लिए होता है। मानव अपने बिना काम के लोगों पर घृणा करता है। परंतु श्रीराम के गुरु वशिष्ठ ने कहा था। घृणा ही पाप हैं और प्रेम ही पुण्य है। लेकिन लोग इस बात को मानने को तैयार नहीं है। दिन प्रतिदिन पाप के भागीदार होते जा रहे हैं।                             * * * * * एक गांव में तीन सगे भाई रहते थे। वह अपने परिवार में एक साथ रहते थे। एक नाम जगदीश, दूसरे का नाम श्याम, तीसरा देवीलाल था। जगदीश ९वीं कक्षा में पास था लेकिन १०वीं कक्षा में फेल था। श्याम ८वीं कक्षा में फेल था परंतु ९वीं कक्षा में पास था। देवीलाल कभी-कभी ही विद्यालय में जाता था और माध्य के अंतराल तक ही विद्यालय में रहता था परंतु वह ९वीं कक्षा में फेल था। इस प्रकार तीनों भाईयों

भुखमरी

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(गीतिका छन्द में रचित काव्य) कुचक्र का कालकूट अब,  पिया  नही  जाता  है। देश की भुखमरी अब सही, हमें   नही  जाती  हैं। अब हम को चन्द्रहास को,  कर  में   लेना  होगा। अब सही पथ पर पेर को,  हमें    बढ़ाना   होगा।। अब उस राणा सांगा को, याद करना पड़ेगा। अब हमेें शरीर पर घाव, हमकों खाना होगा। शत्रु को अब सूर्यपूत्र के, पास भेजना होगा। अब सागर में भी रास्था, हमें बनाना होगा।। कलयुग के माई पापी,  आनन्द   ले  रहा   हैं। बड़ी अमिरी का जीवन, वही  बीता   रहा  हैं। एक बार महसूस कर तु, जिन्दगी के ताप को। जो एक झोपड़ी में वह, जिन्दगी  बीता  रहा।। आज हम भूल बैठे है, भारत   के  वैभव   को। वीर सत्यवादी राजा,  यहा   रहा    करते    थे। वह अपने वचन पर अटल, हमेशा  रहा  करते। एक परिवार सहीत खुद, वह भी बिक जाते थे।।  ( नारायण सुथार  )  

कविता - 'मानव'

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        'मानव'                                               तृष्णा   उमंग  मद मे, चलता  मनु  पथ पर, भोंदू राखे  अभिमान, है  तृष्णा के  मद मे । पीछे   देख  जमजाल, आ रहा  तृष्णा मद मे, जमजाल दो घडी को, जाय     जमपुर    ले । नित मॉहि  प्रेम राख, सुघर   बैन   बोलना, धरा की सेवा करना, महेश  को  भजि के । संकट आये  धरा पर, तभी हो जाना तैयार, अभिमान  तजि कर, बलिदान    दे   देना । कर  जोड़  विनती हे, तजि देना  अभिमान, 'मैं' वृथा रावण मे था, बादि   नाम   उसका ।  ( नारायण सुथार  )