दोहे

धर्म  को ही  कर्म  कहे, कर्म को धर्म कहे।
कर्म पत तजि धर्म करें, धर्म   वृथा   हुई।।

धेनु पूज कर धर्म करें, तिलक कर रखे डोर।
धेनु  प्यासी   रह  गई,  धर्म    कोरा    होई।।

धर्म ही धर्म सब कहे, धर्म  करे  न  कोई।
धर्म किया हरिश्चंद्र ने, नाम जगत में पाई।।

धर्म  धर्म   में  भेद  है, धर्म  धर्म  में भाव।
मानव को धर्म एक है, कर सेवा निस्वार्थ।।

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