कविता - 'मानव'
'मानव'
तृष्णा उमंग मद मे,
चलता मनु पथ पर,
भोंदू राखे अभिमान,
है तृष्णा के मद मे ।
पीछे देख जमजाल,
आ रहा तृष्णा मद मे,
जमजाल दो घडी को,
जाय जमपुर ले ।
नित मॉहि प्रेम राख,
सुघर बैन बोलना,
धरा की सेवा करना,
महेश को भजि के ।
संकट आये धरा पर,
तभी हो जाना तैयार,
अभिमान तजि कर,
बलिदान दे देना ।
कर जोड़ विनती हे,
तजि देना अभिमान,
'मैं' वृथा रावण मे था,
बादि नाम उसका ।
(नारायण सुथार )
तृष्णा उमंग मद मे,
चलता मनु पथ पर,
भोंदू राखे अभिमान,
है तृष्णा के मद मे ।
पीछे देख जमजाल,
आ रहा तृष्णा मद मे,
जमजाल दो घडी को,
जाय जमपुर ले ।
नित मॉहि प्रेम राख,
सुघर बैन बोलना,
धरा की सेवा करना,
महेश को भजि के ।
संकट आये धरा पर,
तभी हो जाना तैयार,
अभिमान तजि कर,
बलिदान दे देना ।
कर जोड़ विनती हे,
तजि देना अभिमान,
'मैं' वृथा रावण मे था,
बादि नाम उसका ।
(नारायण सुथार )
बहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंWa
जवाब देंहटाएंExcellent
जवाब देंहटाएंVery very nice
जवाब देंहटाएंExcellent
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