सत्य की ओर
हे मां वीणा धारिणी,
हे मां पुष्प धारिणी,
हे मां सामवेद धारिणी,
काव्य ज्ञान प्रदान करो।
हे मां स्वरों की देवी,
हे मां ज्ञान की देवी,
कर जोड़ विनती करूं,
काव्य ज्ञान प्रदान करो।।
*****
'सत्य की ओर '
(भाग - १ )
हिंसा से मुख मोड़ चलो तुम।
अभिमान तज चलो तुम।
लक्ष्य की ओर बढ़ चलो तुम।
अब हरि का नेत्र खुलेगा,
गगन में बिजली चमकेगी,
हाहाकार होगा चारों तरफ,
क्रूर का विनाश होगा अब।
हरि में बल है अति प्रचंड,
नष्ट कर सकते दुनिया को।
समझ सको तो अभी समझो,
नहीं तो प्रलय होगा फिर।।
हो रही थी सभा इंद्र की,
पृथ्वी लोक पर समस्याओं की।
पृथ्वी लोक से ब्रह्म ऋषि आए।
इंद्र ने सभा को प्रारंभ किया।
तब बोल उठे वशिष्ठ,
विश्वामित्र को बुलाना चाहिए।
तब इंद्रदेव बोल उठे,
विश्वामित्र ब्रह्म ऋषि नहीं है।
गुरुवशिष्ठ ने उत्तर दिया,
विलंब नहीं है, ब्रह्म ऋषि बनने में।
उनके बिना निर्णय उचित नहीं हे।
निमंत्रण भेजा इंद्र ने विश्वामित्र को।
नारद बुला ले आए विश्वामित्र को,
सभी को कर जोड़ कर प्रणाम।
विश्वामित्र ने आसन ग्रहण किया।
इंद्र ने अपनी शंका प्रकट की।
ऐसी कौन सी वस्तु है सृष्टि में?
जिसका हो नहीं मूल्यांकन।
बहुमूल्य हो सब वस्तुओं से।
ब्रह्म ऋषि यों ने उत्तर दिया।
किसी ने कहा न्याय,
किसी ने कहा ज्ञान,
किसी ने कहा धन,
वशिष्ठ ने कहा सत्य।
तब बोल उठे विश्वामित्र,
सत्य का पालन करने वाला कोई है?
वशिष्ठ ने कहा सत्यव्रत महाराज के पुत्र,
अयोध्या का राजा हरिश्चंद्र।
हंस पड़े तब विश्वामित्र,
भला कोई सत्य का पालन कर सकता।
मैं असत्य कह ला दूंगा,
अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र के मुख से।
क्रोधीत होकर बोल उठे वशिष्ठ,
विश्वामित्र ने असत्य बुलवा दिया तो।
मैं अपनी संपूर्ण तपो शक्ति को,
विश्वामित्र को समर्पित कर दूंगा।
तब विश्वामित्र बोल उठे,
अगर मैं पराजिता हुआ तो,
अपना आधा तपोबल,
हरिश्चंद्र को समर्पित कर दूंगा।
तभी इंद्र बोल उठा,
हो नहीं जाती परीक्षा हरिश्चंद्र की,
तब तक यह सभा रोकी जाती है।
सभी ऋषि सभा को छोड़ चले।।
(भाग - २ )
पहुंचे विश्वामित्र अयोध्या नगरी में,
हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने को।
हरिश्चंद्र से यज्ञ के लिए धन मांगा,
हरिश्चंद्र ने कहां अवश्य मिलेगा धन।
विश्वामित्र ने कहा हमें वचन दो,
हरिश्चंद्र ने वचन दिया हम धन देंगे।
साथ नहीं ले गए विश्वामित्र धन को,
राज्य में ही छोड़ चले गए धन को।
पहुंचे अपनी कुटिया में विश्वामित्र,
किया दो सुंदरियों को उत्पन्न।
भेजा हरिश्चंद्र से विवाह के लिए।
दोनों सुंदरिया पहुंची हरिश्चंद्र के पास।
विवाह का प्रस्ताव उनके सामने रखा,
हरिश्चंद्र ने प्रस्ताव किया अस्वीकार।
विश्वामित्र को अति प्रचंड क्रोध आया,
विश्वामित्र पहुंचे हरिश्चंद्र के पास।
तुमने हमारी बेटियों को ठुकराया है,
हमारा बहुत बड़ा अपमान किया।
या तो तुम अपना राज्य छोड़ो,
या फिर हमारी बेटियों से विवाह करो।
तारावती मेरी पत्नी है,
रोहिताश्व मेरा एक पुत्र है।
मैं और विवाह नहीं करूंगा,
मैं ऐसा अन्याय नहीं करूंगा।
मैं अपना राज्य छोड़ दूंगा,
पर अपना धर्म नहीं छोडूंगा।
सत्य पर हमेशा अटल रहूंगा,
लेकिन विवाह नहीं करूंगा।
क्या तुम सच में राज्य छोड़ दोगे?
मैं हरिश्चंद्र वचन देता हूं कि,
मैं अपना राज्य छोड़ दूंगा लेकिन,
अपना धर्म नहीं छोडूंगा।
हरिश्चंद्र पत्नी और पुत्र के साथ,
राज्य छोड़कर जाने लगा।
विश्वामित्र ने कहां ठहरो,
राज्य छोड़कर जा रहे हो।
इन आभूषणों का क्या करोगे,
यह आभूषण तो अब हमारे हैं।
हरिश्चंद्र ने आभूषण उतार दिए,
राज्य विश्वामित्र को सौंप दिया।
तीनों राज्य छोड़कर जाने लगे,
फिर विश्वामित्र ने कहा ठहरो।
हरिश्चंद्र ने कहा क्या भूल हुई है,
हमें हमारे यज्ञ का धन कौन देगा?
हरिश्चंद्र ने कहा कौन सा धन?
इतनी जल्दी तुम वचन भूल गए हो।
हमने यज्ञ के लिए जो धन मांगा था,
वह धन हमें कौन देगा अब।
मैंने सारा राज्य आप को सौंप दिया है,
मैं और धन अब कहां से लाऊं।
विश्वामित्र ने कहा एक महीने में,
तुम्हें हमारा धन लौटाना होगा।
तुम अगर धन नहीं लौटा सकते हो,
तो यह कह दो कि मैं वचन हार गया।
हरिश्चंद्र बोला मैं खुद बिक जाऊंगा,
लेकिन अपना वचन नहीं छोडूंगा।
प्रजा ने प्रयास किया रोकने का,
लेकिन हरिश्चंद्र नहीं रुका।
हरिश्चंद्र ने कहा सदैव सत्य पर रहूंगा,
यह कहकर राज्य छोड़ चला।
विश्वामित्र ने अपने शिष्य को साथ भेजा,
जाओ तुम भी इनसे ऋण लेकर आना।
यह ऋण नहीं दे तो इनके मुख से,
यह सुनकर आना कि 'मैं वचन छोड़ता हूं'।।
(भाग - ३ )
हरिश्चंद्र सत्य की ओर बढ़ चला,
अपना संपूर्ण राज्य छोड़ चला।
परिवार बिक जाएगा लेकिन,
अपना सत्य नहीं छोड़ेगा।
बड़े महलों का राजा आज,
घने जंगल में निकल पड़ा।
अपना राज्य छोड़ वह,
सत्य की ओर निकल पड़ा।
दिन ढलने लगा सूर्यास्त होने लगा,
चारों पहुंचे बरगद के पेड़ के नीचे।
काली अंधेरी रात छा गई,
चांद की रोशनी आने लगी।
अंधेरी काली रात के बाद,
सूर्य उदय हो गया।
चारों प्राणी चलते - चलते,
पहुंच गए काशी नगरी में।
हरिश्चंद्र हाथ जोड़कर खड़ा,
अपनी पत्नी और पुत्र बेचने को।
एक ब्राह्मण ने दासी बनाकर,
खरीद लिया पत्नी और पुत्र को।
अब हरिश्चंद्र बिकने को खड़ा है,
अपना ऋण चुकाने के लिए।
काशी के लोग इकट्ठा हुए,
हरिश्चंद्र को खरीदने के लिए।
एक कलवे नाम के भंगी ने,
खरीदी लिया राजा हरिश्चंद्र को।
श्मशान घाट का कर लेने को,
हरिश्चंद्र बिक गया एक भंगी के यहां।
हरिश्चंद्र श्मशान घाट का पहरा देने चला,
काली रात हरिश्चंद्र श्मशान में बीताता था।
कर लिए बिना चिता नहीं जलाने देता था,
अपना कर्तव्य दृढ़ संकल्प के साथ निभाता।
हरिश्चंद्र कष्ट भी बहुत पा रहा था,
थोड़ा मटका फूट जाने पर भी,
भंगी की पत्नी की डांट सुन रहा था,
लेकिन सिर नहीं ऊपर उठा रहा था।
तारावती उधर कई कष्ट जेल रही थी,
नहीं खाना मिलता बराबर का।
प्रातःकाल बच्चे खेल रहे थे,
उन बच्चों को भेजा पुष्प लाने को।
रोहिताश्व चला उन बच्चों के साथ,
वन में पुष्प तोड़ने को।
विश्वामित्र ने किया भुजंग प्रकट,
काट लिया रोहिताश्व को भुजंग ने।
बाकी के बच्चे दौड़े चले आए घर पर,
कहां रोहिताश्व को भुजंग ने काट लिया।
लेकिन उस ब्राह्मण की पत्नी ने,
तारावती को वन में नहीं जाने दिया।
जब तक घर का सारा काम नहीं हुआ था,
तब तक तारावती घर में ही रही।
तब तक अंधेरी काली रात हो गई,
फिर तारावती वन में पहुंच गई।
रोहिताश्व की लाश देख आंखें भर आई।
उस अंधेरी काली रात में तारावती,
लाश को ले श्मशानघाट चली,
आगे हरिश्चंद्र का पहरा था श्मशान में।
तारावती रोहिताश्व को जलाने लगी,
तब तक पहुंच गया हरिश्चंद्र वहां।
तुम इसे नहीं जला सकती हो,
मुझे एक स्वर्ण मुद्रा देनी होगी।
नहीं पहचान सके हरिश्चंद्र तारावती को,
नहीं पहचान सकी तारावती हरिश्चंद्र को।
हरिश्चंद्र ने कहा मुझे एक स्वर्ण मुद्रा देनी होगी,
तारावती ने कहा मेरे पास अब कुछ नहीं है।
हरिश्चंद्र ने कहा झूठ क्यों बोल रही हो,
तुम्हारे गले का मंगलसूत्र मुझे दे दो।
यह मंगलसूत्र आपको कैसे दिख गया,
यह मंगलसूत्र तो अदृश्य है।
कहीं आप राजा हरिश्चंद्र तो नहीं है?
मैं अयोध्या का राजा हरिश्चंद्र ही हूं।
है नारी बताओ तुम कौन हो?
मैं आपकी धर्मपत्नी तारावती हूं।
यह सुनकर हरिश्चंद्र की आंखें भर आई,
हरिश्चंद्र ने कहा मैं अपना धर्म नहीं छोड़ सकता।
तुम्हें एक स्वर्ण मुद्रा और लाल कपड़ा देना होगा,
हरिश्चंद्र ने कहा यही मेरा अंतिम निर्णय है।
तारावती ने कहा मैं यजमान से लाती हूं,
तब तक आप शव की रक्षा करते रहना।
तारावती उसी वन से गुजर कर जाने लगी,
तब विश्वामित्र ने काल को प्रकट किया।
और काशी के राजा के पुत्र को,
मारकर जंगल के बीच डाल दिया।
जब तारावती उस रास्ते से जा रही,
राजा के पुत्र के ऊपर पैर लगा।
तारावती देखने लगी उस बच्चे को,
राजा के सैनिक वहां पहुंच गए।
इसी ने राजा के पुत्र को मार डाला,
तारावती को ले गए राजदरबार में।
राजा ने तारावती को मृत्युदंड दिया।
जंजीरों से बांध तारावती को,
श्मशान घाट ले जा रहे थे।
पूरा गांव तमाशा देख रहा था।
तारावती को श्मशान घाट ले गए,
हरिश्चंद्र ने कहा उसने क्या किया?
कलवे नाम के भंगी ने कहा,
इस नारी ने राजा के पुत्र को मारा है।
हरिश्चंद्र ने कहा यह ऐसा नहीं कर सकती,
तुम दास हो राजा की आज्ञा का पालन करो।
इस नारी के सर को धड़ से अलग करो,
यह आज्ञा देकर सभी लोग चले गए वहां से।
हरिश्चंद्र ने कहा यह कैसे हुआ है,
तारावती ने सारी बात सुनाई।
अब सत्य का पालन करना होगा,
सिर धड़ से अलग करना होगा।
हरिश्चंद्र खड़ग ले खड़ा हुआ,
काटने लगा सिर तारावती का।
तब प्रकट हो गए विश्वामित्र,
कहां ठहरो तुम्हारा वचन पूरा हुआ।
विश्वामित्र ने कहा धन्य हो हरिश्चंद्र धन्य हो
तुम्हारी जय-जयकार होगी हरिश्चंद्र,
जहां सत्य हैं वहां तुम्हारा नाम आएगा।
आज से तुम सत्यवादी हरिश्चंद्र कहलाओगे।
रोहिताश्व को पुनर्जीवित किया विश्वामित्र ने,
फिर राज सिहासन लौटा दिया हरिश्चंद्र को।
विश्वामित्र ने अपना आधा तपोबल,
हरिश्चंद्र को समर्पित कर दिया।
(नारायण सुथार )
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें